यद् यद् स्पृश्यति पाणिभ्यां यद् यद् पश्यति चक्षुषा।
स्थावरणापि मुच्यन्ते किं पुनः प्राकृताः जनाः।।
(उपनिषद)
ब्रह्मज्ञानी महापुरुष ब्रह्मभाव से अपने हाथ से जिसको स्पर्श करते हैं, अपने चक्षुओं से जिसको देखते हैं वह जड़ पदार्थ भी कालांतर में जीवत्व पाकर आखिर ब्रह्मत्व को उपलब्ध होकर मुक्ति पाता है, तो फिर उनकी दृष्टि में आये हुए मानव के मोक्ष के बारे में संदेह ही कहाँ है ?
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