अकर्त्तृत्वममोकृत्वं स्वात्मनो मन्यते यदा।
तदा क्षीणा भवन्त्येव समस्ताश्चित्तवृत्तयः।।
जब पुरूष अपने अकर्त्तापन और अभोक्तापन को जान लेता है तब उस पुरूष की संपूर्ण चित्तवृत्तियाँ क्षीण हो जाती हैं।
(अष्टावक्र गीताः 18.59)
अर्थात् अपनी आत्मा को जब अकर्त्ता-अभोक्ता जानता है तब उसके चित्त के सारे संकल्प और वासनाएँ क्षीण होने लगती हैं।
हकीकत में करना-धरना इन हाथ पैरों का होता है। उसमें मन जुड़ता है। अपनी आत्मा अकर्त्ता है। जैसे बीमार तो शरीर होता है परन्तु चिन्तित मन होता है। बीमारी और चिन्ता का दृष्टा जो मैं है वह निश्चिन्त, निर्विकार और निराकार है। इस प्रकार का अनुसंधान करके जो अपने असली मैं में आते हैं, फिर चाहे मदालसा हो, गार्गी हो, विदुषी सुलभा हो अथवा राजा जनक हो, वे जीते जी यहीं सद्योमुक्ति का अनुभव कर लेते हैं।
सद्योमुक्ति का अनुभव करने वाले महापुरूष विष्णु, महेश, इन्द्र, वरूण, कुबेर आदि के सुख का एक साथ अनुभव कर लेते हैं क्योंकि उनका चित्त एकदम व्यापक आकाशवत् हो जाता है और वे एक शरीर में रहते हुए भी अनन्त ब्रह्माण्डों में व्याप्त होते हैं। जैसे घड़े का आकाश एक घड़े में होते हुए भी ब्रह्माण्ड में फैला है वैसे ही उनका चित्त चैतन्य स्वरूप के अनुभव में व्यापक हो जाता है।
Pujya Asharam Ji Bapu
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