विश्वं स्फुरति यत्रेदं तरंगा इव सागरे।
तत्त्वमेव न सन्देहश्चिन्मूर्ते विज्वरो भव ।।
श्रद्धत्स्व तात श्रद्धत्स्व नात्र मोहं कुरुष्व भोः।
ज्ञानस्वरूपो भगवानात्मा त्वं प्रकृतेः परः।।
'जहाँ से यह संसार, सागर में तरंगों की तरह स्फुरित होता है सो तू ही है, इसमें सन्देह नहीं। हे चैतन्यस्वरूप ! संताप रहित हो। हे सौम्य ! हे प्रिय ! श्रद्धा कर, श्रद्धा कर। इसमें मोह मत कर। तू ज्ञानस्वरूप, ईश्वर, परमात्मा, प्रकृति से परे है।'
(अष्टावक्रगीता)
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