'विचारसागर' में
यह बात आती है । वेदान्त
का एक बड़ा
ऊँचा ग्रन्थ
है 'विचारसागर' ।
उसमें कहा है
कि पहली,
दूसरी या
तीसरी भूमिका
में जिसको भी ब्रह्मज्ञानी
गुरु मिल जायें
वह ब्रह्मज्ञानी
गुरु का ध्यान
करे, उनके वचन
सुने ।
उसमें तो यहाँ
तक कह दिया है किः
ईश ते अधिक
गुरु में धारे
भक्ति सुजान ।
बिव गुरुकृपा
प्रवीनहुँ
लहे न आतम
ज्ञान ।।
ईश्वर से भी
ज़्यादा गुरु
में प्रेम
होना चाहिए । फिर
सवाल उठाया
गया किः "ईश्वर
में प्रेम
करने से भी
अधिक गुरु में
प्रेम करना
चाहिए ।
इससे क्या लाभ
होगा?
उत्तर में कहाः 'ईश्वर
में प्रेम
करके सेवा
पूजा करोगो
तो हृदय शुद्ध
होगा और जीवित
महापुरुष
में प्रीति करोगे,
सेवा-पूजा,
ध्यान करोगे
तो हृदय तो
शुद्ध होगा
ही, वे
तुम्हारे में
कौन सी कमी है
वह बताकर
ताड़न करके वह
गलती निकाल
देंगे ।
मूर्ति तो
गलती नहीं
निकालेगी । मूर्ति से
तुम्हारा भाव
शुद्ध होगा
परन्तु तुम्हारी
क्रिया और
ज्ञान की
शुद्धि के
लिए, अनुमति
के लिए मूर्ति
क्या करेगी?Pujya Asharam Ji Bapu
No comments:
Post a Comment
Note: only a member of this blog may post a comment.