जिस शिष्य में गुरु के प्रति अनन्य भाव नहीं जगता वह शिष्य आवारा पशु के समान ही रह जाता है।
सब पुरुषार्थ गुरुकृपा प्राप्त करने के लिए किये जाते हैं। गुरुकृपा प्राप्त हो जाये तो उसे हजम करने का सामर्थ्य आये इसलिए पुरुषार्थ किया जाता है। दूध की शक्ति बढ़ाने के लिए कसरत नहीं की जाती लेकिन शक्तिमान दूध को हजम करने की योग्यता आये इसलिए कसरत की जाती है। दूध स्वयं पूर्ण है। उसी प्रकार गुरुकृपा अपने आप में पूर्ण है, सामर्थ्यवान है। भुक्ति और मुक्ति दोनों देने के लिए वह समर्थ है। शेरनी के दूध के समान यह गुरुकृपा ऐसे वैसे पात्र को हजम नहीं होती। उसे हजम करने की योग्यता लाने के लिए साधक को सब प्रकार के साधन-भजन, जप-तप, अभ्यास-वैराग्य आदि पुरुषार्थ करने पड़ते हैं।Pujya asharam ji bapu
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