यह विश्व सब है आत्म ही, इस भाँति से जो जानता।
यश वेद उसका गा रहे, प्रारब्धवश वह बर्तता॥
ऐसे विवेकी सन्त को, न निषेध है न विधान है।
सुख दुःख दोनों एक से, सब हानि-लाभ समान है॥
कोई न उसका शत्रु है, कोई न उसका मित्र है।
कल्याण सबका चाहता है, सर्व का सन्मित्र है॥
सब देश उसको एक से, बस्ती भले सुनसान है।
भोला ! उसे फिर भय कहाँ, सब हानि-लाभ समान है॥
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