Saturday 15 October 2011

       हो जा अजर ! हो जा अमर !!

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जो मोक्ष है तू चाहता, विष सम विषय तज तात रे।
आर्जव क्षमा संतोष शम दम, पी सुधा दिन रात रे॥
संसार जलती आग है, इस आग से झट भाग कर।
आ शांत शीतल देश में, हो जा अजर ! हो जा अमर !!॥1॥

पृथिवी नहीं जल भी नहीं, नहीं अग्नि तू नहीं है पवन।
आकाश भी तू है नहीं, तू नित्य है चैतन्यघन॥
इन पाँचों का साक्षी सदा, निर्लेप है तू सर्वपर।
निजरूप को पहिचानकर, हो जा अजर ! हो जा अमर!!॥2॥

चैतन्य को कर भिन्न तन से, शांति सम्यक् पायेगा।
होगा तुरंत ही तू सुखी, संसार से छुट जायेगा॥
आश्रम तथा वर्णादि का, किञ्चित् न तू अभिमान कर।
सम्बन्ध तज दे देह से, हो जा अजर ! हो जा अमर!!॥3॥
नहीं धर्म है न अधर्म तुझमें ! सुख-दुःख का भी लेश न।
हैं ये सभी अज्ञान में, कर्त्तापना भोक्तापना॥
तू एक दृष्टा सर्व का, इस दृश्य से है दूरतर।
पहिचान अपने आपको, हो जा अजर ! हो जा अमर !!॥4॥
कर्त्तृत्व के अभिमान काले, सर्प से है तू डँसा।
नहीं जानता है आपको, भव पाश में इससे फँसा॥
कर्त्ता न तू तिहुँ काल में, श्रद्धा सुधा का पान कर।
पीकर उसे हो सुखी, हो जा अजर ! हो जा अमर !!॥5॥
मैं शुद्ध हूँ मैं बुद्ध हूँ, ज्ञानाग्नि ऐसी ले जला।
मत पाप मत संताप कर, अज्ञान वन को दे जला॥
ज्यों सर्प रस्सी माँहिं, जिसमें भासता ब्रह्माण्ड भर।
सो बोध सुख तू आप है, हो जा अजर ! हो जा अमर !!॥6॥
अभिमान रखता मुक्ति का, सो धीर निश्चय मुक्त है।
अभिमान करता बन्ध का, सो मूढ़ बन्धनयुक्त है॥
'जैसी मति वैसी गति', लोकोक्ति यह सच मानकर।
भव-बन्ध से निर्मुक्त हो, हो जा अजर ! हो जा अमर!!॥7॥
आत्मा अमल साक्षी अचल, विभु पूर्ण शाश्वत् मुक्त है।
चेतन असंगी निःस्पृही, शुचि शांत अच्युत तृप्त है॥
निज रूप के अज्ञान से, जन्मा करे फिर जाय मर।
भोला ! स्वयं को जानकर, हो जा अजर ! हो जा अमर !!॥8॥

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