तुलसीदास
जी ने ठीक ही
कहा हैः
गुरू
बिन भवनिधि
तरहिं न कोई।
चाहे
बिरंचि शंकर
सम होई।।
संसाररूपी
सागर को कोई
अपने आप तर
नहीं सकता। चाहे
ब्रह्माजी
जैसे
सृष्टिकर्त्ता
हों, शिवजी
जैसे
संहारकर्त्ता
हों फिर भी
अपने मन की चाल
से, अपनी
मान्यताओं के
इन जंगल से
निकालने के
लिए पगडण्डी दिखाने
वाले सदगुरू
अवश्य चाहिए।
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