सन्तुष्टोऽपि न सन्तुष्टः खिन्नोऽपि न च खिद्यते।
तस्याश्चर्यदशां तां तां तादृशा एव जानते॥
धीर पुरुष संतुष्ट होते हुए भी संतुष्ट नहीं होता और खिन्न दिखता हुआ भी खिन्न नहीं होता। उसकी ऐसी आश्चर्य दशा को उसके जैसा पुरुष ही जान सकता है।
अष्टावक्र गीता
चिन्ता सहित है दीखता, फिर भी न चिन्तायुक्त है।
मन बुद्धि वाला भासता, मन बुद्धि से निर्मुक्त है॥
दीखे भले ही खिन्न, पर जिसमें नहीं है खिन्नता।
गम्भीर ऐसे धीर को, वैसा ही विरला जानता॥
तस्याश्चर्यदशां तां तां तादृशा एव जानते॥
धीर पुरुष संतुष्ट होते हुए भी संतुष्ट नहीं होता और खिन्न दिखता हुआ भी खिन्न नहीं होता। उसकी ऐसी आश्चर्य दशा को उसके जैसा पुरुष ही जान सकता है।
अष्टावक्र गीता
चिन्ता सहित है दीखता, फिर भी न चिन्तायुक्त है।
मन बुद्धि वाला भासता, मन बुद्धि से निर्मुक्त है॥
दीखे भले ही खिन्न, पर जिसमें नहीं है खिन्नता।
गम्भीर ऐसे धीर को, वैसा ही विरला जानता॥
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