ऐ मन रूपी
घोड़े !
तू और छलांग
मार। ऐ नील
गगन के घोड़े ! तू और
उड़ान ले।
आत्म-गगन के
विशाल मैदान
में विहार कर।
खुले विचारों
में मस्ती लूट।
देह के पिंजरे
में कब तक
छटपटाता
रहेगा ?
कब तक विचारों
की जाल में
तड़पता रहेगा ? ओ
आत्मपंछी ! तू और
छलांग मार। और
खुले आकाश में
खोल अपने पंख।
निकल अण्डे से
बाहर। कब तक
कोचले में
पड़ा रहेगा ? फोड़
इस अण्डे को।
तोड़ इस
देहाध्यास
को। हटा इस
कल्पना को।
नहीं हटती तो
ॐ की गदा से
चकनाचूर कर
दे।
-Pujya Asharam Ji Bapu
No comments:
Post a Comment
Note: only a member of this blog may post a comment.