यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र
लोकोऽयं
कर्मबन्धनः।
तदर्थ
कर्म कौन्तेय
मुक्तसंगः
समाचर।।
'यज्ञ
के निमित्त
किये जाने
वाले कर्मों
से अतिरिक्त
दूसरे कर्मों
में लगा हुआ
ही यह
मनुष्य-समुदाय
कर्मों से
बँधता है।
इसलिए हे
अर्जुन ! तू
आसक्ति से
रहित होकर उस
यज्ञ के
निमित्त ही
भली भाँति
कर्त्तव्य
कर्म कर।'
(भगवद्
गीताः 3.9)
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